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सन १९४७ में दो भागों में काट दिए जाने के बावजूद भारतीयों ने बड़े उत्साह के साथ आगे बढ़ने की ठानी थी. अगले चार वर्षों में ही गणतंत्र स्थापित हुआ और लगा हमारा भविष्य उज्जवल है. परन्तु आधी सदी बीतते न बीतते लगने लगा किहमने जो राह पकड़ी वह तो उलटी ही निकली.देश एक ऐसे भंवर में फँस गया जिसमे निराशा ही निराशा दिखाई दे रही है. आशा की कोई किरण नज़र नहीं आती.
हमने अंग्रेजों की नक़ल में अपने लिए जो संसदीय प्रणाली चुनी वह हमारे लिए उपयुक्त थी भी या नहीं इस पर हमने कोई विचार करना ज़रूरी ही नहीं समझा. हमारे संविधान के जो निर्माता थे वे शायद कुछ अधिक ही आदर्शवादी थे इसलिए उन्होंने सोचा किदेश में अच्छे ही अच्छे लोग हैं इसलिए सब अच्छा ही होगा. वे यह बिलकुल भूल गए कि कल्युग तो दरवाज़े पर इसी इंतज़ार में खडा है की कब वह घात लगाए और सारी आशाओं को चकनाचूर करदे. हम इस भ्रम में थे किसदा ही एक दल की सरकार रहेगी और उसमे भी सब आदर्शवादी ही होंगे इसलिए देश को कभी कोई ख़तरा नहीं होगा. वे अंग्रेजी का वह कथन भूल ही गए कि पॉवर करप्ट्स एंड ऐब्सोल्युट पॉवर करप्ट्स ऐब्सोल्युटली. सबसे अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस में गिरावट पहले बीस वर्ष बाद ही शुरू होगई थी. फलतः एकदलीय शासन का सपना जल्द ही चकनाचूर होगया. उसके बाद कोआलिशन के युग का प्रारंभ हुआ जो गिरे हुए एकदलीय शासन से कही अधिक निम्न कोटी का रहा. यह एक प्रकार से कलियुग की पूर्ण प्रतिष्ठा के सामान देख रहा है. सबसे बड़े दर की बात तो यह है किअगले बीसियों साल इस कोअलिशन से छुटकारा मिलाने की कोई किरण नजर नहीं आरही है.देश दिन प्रतिदिन अवनति की तरफ अग्रसर होरहा है. भ्रष्टाचार में अभूतपूर्व वृद्धि इसी मिलीजुली सरकार का ही नतीजा है. क्योंकि न तो इसके विरुद्ध कोई प्रभावकारी कदम उठाये जारहे हैं और न इस काम के लिए कोई इच्छाशक्ति की दिखाई देती है.
अफ़सोस की बात तो यह है की कभी भी यह विचार नहीं किया गया कीजो शासन प्रणाली अपनाने जारहे हैं वह हमारी मानसिकता से मेल खाती है या नहीं? या देश की जनता उसके लिए तैयार है भी? जिस देश में जातिवाद, ऊंचे नीचे का भेद इतने भयंकर रूप से व्याप्त हो क्या वहाँ इस प्रकार की प्रणाली ठीक रहेगी भी? एक और विशेष बात यह है की जिस देश में मानव पूजा इतनी शिद्दत से हो किहम किसी को भी भगवांन का दर्जा देने को सदा तैयार रहते हों वहाँ क्या जनता वाकई सरकार के गठन में न्याय करपाएगी?
एक सबसे खराब बात यह हुयी किएकदम से ही देश में राष्ट्रिय स्टार के देशभक्त और विचारवान व्यक्तिओं का अकाल सा होगया. राजनीति में स्वार्थी, लालची लोगों की पैठ होगई . फलतः वे सभी बातें हुयी जो देश के लिए अहितकर थी.
आज नतीजा हमारे सामने है. सबसे बड़ी बात तो यह है पडोसी देश चीन जो कभी हमारी तरह ही था, की तुलना में हम आज कहीं नहीं हैं.अपनी सारी कमियों को हम जनतंत्र का और देश दिन प्रति दिन ऐसी ओर जारहा है जिस से निकालना हमारे आज के कर्णधारों के हाथों असम्भव सा दिख रहा है.
आज देश पूरी तरह भ्रष्ट तंत्र बनकर रह गया है. ऐसे में हमें बड़ी गंभीरता से सोचना होगा किक्या हम आज की व्यवस्था को ऐसे ही चलने देंगे या उठ कर इसमें बदलाव करने की चेष्टा करेंगे. जब हम व्यक्तिपूजक हैं तो क्यों नहीं राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था को अपनाए जो हमारी सोच के अधिक नज़दीक हो?
कहना न होगा की आज हम इतिहास के उस स्थान पर खड़े हैं जहां औरंगजेब की मृत्यु के बाद देश खडा हुआ था. अंग्रेजी शासन में हमें कमसे कम यह सोचने का तो अवसर मिलही किहमे एक स्वतंत्र देश बनाना चाहिए. अब अगर हम अपनी स्वतंत्र के बाद पैशाचिक लोगों की गिरफ्त में आजायें तो यह हमारी ही कमी होगी और हमारा दुर्भाग्य.
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